स्वच्छ न्याय प्रशासन (Fair Administration of Justice) की अवधारणा में "अपील" और "रिवीजन" के अन्तर्गत पूर्व निर्णयों को केवल पलट देना या यथावत रखना ही नहीं आता है, अपितु जानबूझकर की गयीं त्रुटियाँ (Intentional Mistakes) एवं पूर्व निर्धारित सोच-विचारकर किये गये न्यायिक उल्लंघन (Predetermined Deliberate Judicial Violations) पाये जाने की दशा में कड़ी निंदा (Strictures) एवं कठोर दण्ड (Severe Punishment) का प्रावधान भी अनिवार्य रूप से होना चाहिये, तभी अधीनस्थ न्यायिक फ़ोरम (Subordinate Judicial Forum) के कदाचार, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी आदि पर प्रभावी रोक सम्भव हो सकती है। अन्यथा उदाहरणस्वरूप- कभी वरिष्ठ ब्यूरोक्रेट, कभी राजनेता के हितबद्ध होने की दशा में और कभी रिश्वतखोरी की दशा में "गणतन्त्र दिवस" 26 जनवरी के सार्वजानिक अवकाश के दिन भी लेखपाल, राजस्व निरीक्षक और तहसीलदार के द्वारा वाद भूमि-स्थल की 'स्पॉट' रिपोर्टें तैयार होती रहेंगी, तथा अगले दिन रविवार को इनकी लखनऊ न्यायालय द्वारा स्वीकारता होती रहेगी, और कभी निम्नवर्णित क्रिया-कलाप होते रहेंगे :-
Saturday, May 30, 2015
Sunday, May 17, 2015
भारतीय न्यायप्रणाली का छिपा घातक सच !
भारतीय न्यायप्रणाली में विभिन्न स्तरों पर अनेकों न्यायिक अधिकरण (Judicial Forums) हैं, जिनमें सुप्रीम कोर्ट, हाई-कोर्ट, जनपदीय स्तर पर दीवानी कोर्ट; फ़ौज़दारी कोर्ट, विभिन्न ट्रिब्यूनल प्रमुखता से शामिल हैं। इनके अतिरिक्त आयोग (कमीशन), परिषद (बोर्ड), उपभोक्ता अदालतें (कंज्यूमर कोर्ट्स), राजस्व न्यायालय (रेवेन्यू कोर्ट्स) आदि भी हैं।
उच्च न्यायिक अधिकरणों को छोड़कर उपरोक्त अनेकों जुडिशियल फ़ोरम्स में न्यायिक अधिकारियों के अलावा ग़ैर न्यायिक अधिकारी भी जज या पीठासीन अधिकारी (Presiding Officer) के रूप में फ़ैसले देते हैं। आश्चर्यजनक रूप से ऐसे ग़ैर न्यायिक अधिकारी विभिन्न अधिनियमों, कानूनों, नियमों आदि की व्याख्या, विवेचना और 'सुनवाई' करके "फैंसले" दे रहे हैं, जिन्होंने औपचारिक रूप से न तो कानून की पढ़ाई करके कानून की कोई डिग्री प्राप्त की है और न ही कोई कानूनी योग्यता औपचारिक रूप से प्राप्त की है।
यह एक काला सच है कि इनके द्वारा दिये गये तमाम "फ़ैसले (Judgements)" बहुधा उनके अधीनस्थ बैठे लोग या कोई "और" तैयार कर रहे और लिख रहे हैं, क्योंकि 'आदेश और निर्णय' तो इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर "रिज़र्व" ही कर लिये जाते हैं। ऐसे में न्याय की गुणवत्ता के स्तर का और निष्पक्षता का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होना चाहिये।
मसलन, भारत में वक़ील (अधिवक्ता या एडवोकेट) बनने के लिये एल०एल०बी० की डिग्री अनिवार्य है, जज बनने के लिये नहीं !
राजस्व न्यायालयों का एक कड़वा सच और : विभिन्न स्तरीय राजस्व न्यायालयों का एक कड़वा सच और भी है, कि नायब-तहसीलदार, तहसीलदार, एस०डी०एम०, ए०डी०एम०, डी०एम०, असिस्टेंट कमिशनर, कमिशनर जैसे अधिकारीगणों का अक्सर "प्रशासनिक कार्यों" में व्यस्त रहना बताया जाता है, बहुधा यह स्वाभाविक भी होता है। मतलब सीधा सा - न्यायिक कार्य ठप्प !
समझ से परे है कि इन प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त अफसरों को न्यायिक कार्य सौंपने की व्यवस्था का औचित्य क्या है? एक तो प्रथम- ये अधिकारी प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त रहते हैं और दूसरे- कुछ अपवादों को छोड़कर इनको औपचारिक कानूनी ज्ञान भी नहीं होता।
इसका भयानक परिणाम ये होता है कि राजस्व मामलों का वर्षों ही नहीं बल्कि दशकों तक लटके रहना और अभूतपूर्व रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और पक्षपात को प्रश्रय। और अगर कहीं कोई 'सीनियर ब्यूरोक्रेट' स्वयं या उसका कोई नज़दीकी मुक़दमे में पक्षकार या हितबद्ध (Interested) हुआ तो फिर फ़ैसला उसके विरुद्ध कैसे किया जा सकता है, और वह भी "सबॉर्डिनेट एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर" के द्वारा।
इसके अतिरिक्त राजस्व अदालतों का क्या कोई दिवस और समय निर्धारित होता है? यदि हाँ- तो क्या इस निर्धारण का कड़ाई से पालन होता है? यदि नहीं- तो लंबित मामलों के पक्षकारों के पास प्रतिकारी उपाय (Remedial Measures) क्या-क्या उपलब्ध हैं? या फ़िर तारीख़-पर-तारीख़? यदि कोई राजस्व न्यायालय अमुक किसी मामले में हितबद्ध है तो फिर वाद दायर होने के एक-दो महीने के अंदर फ़ैसला, और वह भी क़ानूनी प्रावधानों, नियमों को ताक पर रखकर? दोषियों के लिये सज़ा का क्या कोई निर्धारण है? स्वाभाविक विधिक चूक की तो 'रिवीजन' या अपील में ठीक किया जाना सामान्य विधिक प्रक्रिया है, लेकिन जानबूझकर की गयी चूक को कठोरता के साथ दण्डित भी किया जाना चाहिये।
**याद रहना चाहिये, किसान की ज़िन्दगी का एक-मात्र सहारा उसकी ज़मीन के अन्यायपूर्ण तरीक़े से छिन जाने की जब नौबत आ जाती है तो फिर फ़ौज़दारी मामलों का भी जन्म होने लगता है, क्योंकि न्याय से नाउम्मीद हो चुका अच्छा-भला इंसान भी क़ानून को अपने हाथ में लेने से फिर संकोच नहीं करता है।
अतः तुरंत और प्रभावी समाधान अपेक्षित है। नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत (Principles of Natural Justice), विधि का शासन (Rule of Law), यथोचित विधि प्रक्रिया (Due Process of Law) जैसे विधिक मानदंडो का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिये। अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाये।**
उच्च न्यायिक अधिकरणों को छोड़कर उपरोक्त अनेकों जुडिशियल फ़ोरम्स में न्यायिक अधिकारियों के अलावा ग़ैर न्यायिक अधिकारी भी जज या पीठासीन अधिकारी (Presiding Officer) के रूप में फ़ैसले देते हैं। आश्चर्यजनक रूप से ऐसे ग़ैर न्यायिक अधिकारी विभिन्न अधिनियमों, कानूनों, नियमों आदि की व्याख्या, विवेचना और 'सुनवाई' करके "फैंसले" दे रहे हैं, जिन्होंने औपचारिक रूप से न तो कानून की पढ़ाई करके कानून की कोई डिग्री प्राप्त की है और न ही कोई कानूनी योग्यता औपचारिक रूप से प्राप्त की है।
यह एक काला सच है कि इनके द्वारा दिये गये तमाम "फ़ैसले (Judgements)" बहुधा उनके अधीनस्थ बैठे लोग या कोई "और" तैयार कर रहे और लिख रहे हैं, क्योंकि 'आदेश और निर्णय' तो इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर "रिज़र्व" ही कर लिये जाते हैं। ऐसे में न्याय की गुणवत्ता के स्तर का और निष्पक्षता का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होना चाहिये।
मसलन, भारत में वक़ील (अधिवक्ता या एडवोकेट) बनने के लिये एल०एल०बी० की डिग्री अनिवार्य है, जज बनने के लिये नहीं !
राजस्व न्यायालयों का एक कड़वा सच और : विभिन्न स्तरीय राजस्व न्यायालयों का एक कड़वा सच और भी है, कि नायब-तहसीलदार, तहसीलदार, एस०डी०एम०, ए०डी०एम०, डी०एम०, असिस्टेंट कमिशनर, कमिशनर जैसे अधिकारीगणों का अक्सर "प्रशासनिक कार्यों" में व्यस्त रहना बताया जाता है, बहुधा यह स्वाभाविक भी होता है। मतलब सीधा सा - न्यायिक कार्य ठप्प !
समझ से परे है कि इन प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त अफसरों को न्यायिक कार्य सौंपने की व्यवस्था का औचित्य क्या है? एक तो प्रथम- ये अधिकारी प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त रहते हैं और दूसरे- कुछ अपवादों को छोड़कर इनको औपचारिक कानूनी ज्ञान भी नहीं होता।
इसका भयानक परिणाम ये होता है कि राजस्व मामलों का वर्षों ही नहीं बल्कि दशकों तक लटके रहना और अभूतपूर्व रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और पक्षपात को प्रश्रय। और अगर कहीं कोई 'सीनियर ब्यूरोक्रेट' स्वयं या उसका कोई नज़दीकी मुक़दमे में पक्षकार या हितबद्ध (Interested) हुआ तो फिर फ़ैसला उसके विरुद्ध कैसे किया जा सकता है, और वह भी "सबॉर्डिनेट एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर" के द्वारा।
इसके अतिरिक्त राजस्व अदालतों का क्या कोई दिवस और समय निर्धारित होता है? यदि हाँ- तो क्या इस निर्धारण का कड़ाई से पालन होता है? यदि नहीं- तो लंबित मामलों के पक्षकारों के पास प्रतिकारी उपाय (Remedial Measures) क्या-क्या उपलब्ध हैं? या फ़िर तारीख़-पर-तारीख़? यदि कोई राजस्व न्यायालय अमुक किसी मामले में हितबद्ध है तो फिर वाद दायर होने के एक-दो महीने के अंदर फ़ैसला, और वह भी क़ानूनी प्रावधानों, नियमों को ताक पर रखकर? दोषियों के लिये सज़ा का क्या कोई निर्धारण है? स्वाभाविक विधिक चूक की तो 'रिवीजन' या अपील में ठीक किया जाना सामान्य विधिक प्रक्रिया है, लेकिन जानबूझकर की गयी चूक को कठोरता के साथ दण्डित भी किया जाना चाहिये।
**याद रहना चाहिये, किसान की ज़िन्दगी का एक-मात्र सहारा उसकी ज़मीन के अन्यायपूर्ण तरीक़े से छिन जाने की जब नौबत आ जाती है तो फिर फ़ौज़दारी मामलों का भी जन्म होने लगता है, क्योंकि न्याय से नाउम्मीद हो चुका अच्छा-भला इंसान भी क़ानून को अपने हाथ में लेने से फिर संकोच नहीं करता है।
अतः तुरंत और प्रभावी समाधान अपेक्षित है। नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत (Principles of Natural Justice), विधि का शासन (Rule of Law), यथोचित विधि प्रक्रिया (Due Process of Law) जैसे विधिक मानदंडो का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिये। अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाये।**
अनेश कुमार अग्रवाल
17.05.2015
Friday, March 27, 2015
विराट कोहली ने खुद ही तमाशा बनाया !
क्रिकेट वर्ल्ड कप 2015 सेमीफाइनल मैच में ऑस्ट्रेलिया के हाथों भारत की बुरी तरह पराजय को भारतीय क्रिकेट प्रेमी आसानी से पचा नहीं पा रहे हैं, और टीम के खिलाड़ियों पर तरह-तरह की ग़ैर-बाजिब टिप्पणियाँ भी हो रही हैं।
कोसे जाने बालों में प्रमुख निशाना विराट कोहली पर है। उनके साथ-साथ उनकी गर्ल-फ्रैंड या उनकी होने बाली जीवन-संगिनी सुश्री अनुष्का शर्मा को भी, जो स्टेडियम में मौज़ूद थीं, तल्ख़ टिप्पणियाँ झेलनी पड़ रही हैं।
इसके प्रमुख दो कारण हैं :
(नं0-1) भारत का अधिकांश मीडिया, जिसको तिल का ताड़ और बात का बतंगड़ बनाकर मसालेदार खबरें परोसकर "न्यूज़ ट्रेडिंग" करने में महारथ हासिल हो चुकी है। ये उसी का परिणाम है।
(नं0-2) ऊल-ज़लूल कटाक्षों के लिये कोहली स्वयं भी ज़िम्मेदार हैं, वरना एक मौके पर अच्छी पारी खेलने के बाद ग्राउंड से ही स्टेडियम में मौज़ूद सुश्री अनुष्का शर्मा के लिये, क्रिकेट के मर्यादित और उच्च-मानदंडों के विपरीत, बल्ले से 'फ्लाइंग किस' करके तमाशा तो उन्होंने ख़ुद ही बनाया। ऐसा तमाशा करके चिर-परिचित 'बॉलीबुडी शिगूफ़ों' की तर्ज़ पर अनुष्का शर्मा की फिल्मों की 'फैन-फॉलोइंग' पर शायद सकारात्मक असर पड़ जाये लेकिन विराट बाबू ! धुरंधर खिलाड़ी युवराज का विज्ञापन बाला एक सन्देश हमेशा याद रखना, कि "जब तक बल्ला चल रहा है तभी तक....."
***अनेश कुमार अग्रवाल
27.03.2015
Tuesday, March 3, 2015
जम्मू कश्मीर में 2014 के आम चुनाव पर हालिआ सियासत !
जम्मू कश्मीर में हाल में संपन्न शांतिपूर्ण चुनावों का श्रेय भारत गणराज्य की सुदृढ़ता, उसके लोकतांत्रिक ढाँचे की मज़बूती, उसके चुनाव आयोग, सेना, अर्धसैनिक बलों और जम्मू कश्मीर के लोगों को जाता है।
भारत की चट्टानी दृढ़ता और उसकी लोकतांत्रिक चुनावी व्यवस्था की हक़ीक़त के आगे पाकिस्तान और अलगावबादी हुर्रियत को आख़िरकार नतमस्तक होना ही पड़ा। अब यदि, जम्मू कश्मीर के नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री जनाव मुफ़्ती मोहम्मद सईद साहब पाकिस्तान और अलगावबादी हुर्रियत की इस स्वीकारता को भारतीय चुनावों में उनका योगदान देना कहते हैं, तो यह उनका घटिया विश्लेषण, मानसिक दिवालियापन और सच्चाई से मुँह मोड़ने के अलावा कुछ और नहीं है। रही बात, आतंकी अफ़ज़ल गुरू के अवशेषों को कश्मीर लाने की मांग और फिर उसको महिमा-मंडित करने की बदनीयती, तो यह पीडीपी और लम्पट अय्यरों का भारत राष्ट्र और उसकी न्यायिक व्यवस्था के विरुद्ध देशद्रोह कहा जायेगा, जिसको भारतीय क़ानून की कसौटी पर कसा जाना चहिये।
*अनेश कुमार अग्रवाल
03.03.2015
Thursday, February 12, 2015
दिल्ली में "आप" की विजय
दिल्ली विधान-सभा चुनाव 2015 में "आप" की अभूतपूर्व विजय के लिये 'आम आदमी पार्टी' को अनेकों शुभकामनायें और बधाई।
'आम आदमी पार्टी' की इस विजय में अनेकों कारणों में से कुछ एक ये भी हैं :
(1) बीजेपी के विरुद्ध तमाम राजनैतिक दलों ने इस कहावत को भी चरितार्थ करने में तनिक भी कसर नहीं छोड़ी कि सामने वाले की अगर एक आँख फोड़ने के लिये अपनी दोनों आँखें कुर्वान् कर देनी पड़े, तो कुर्वान कर दो। इस अभियान की अगुवाई कांग्रेस ने सफलतापूर्वक की।
(2) 'आम आदमी पार्टी' के विरुद्ध बीजेपी का नकारात्मक प्रचार भी उनके लिये भारी पड़ा। इसमें कार्टून प्रदर्शन सबसे प्रमुख रहा। इससे बचा जा सकता था।
(3) बीजेपी के विरुद्ध दुष्प्रचार में तमाम प्रतिपक्षी दल एक जुट दिखायी दिये, और प्रतिपक्ष के वोटों के बिखराव को उन्होंने रोका, अन्यथा बीजेपी अपने हाल के पूर्व प्रदर्शन से "मत-प्रतिशत' में कोई बहुत पीछे नहीं रही है।
(4) सम्पूर्ण विपक्ष ने बीजेपी को एक "कॉमन एनिमी (Common Enemy)" मान लिया था।
(5) अब इस "आप" की जीत की बेगानी शादी में विपक्ष के कुछेक नामचीन घोषित भ्रष्ट अब्दुल्लाओँ की दीवानगी छिपाये नहीं छिप रही है। ऐसा लग रहा है कि कोयला; टूजी; कॉमनवेल्थ; चारा घोटालेबाज़, शारदा चिट फण्ड के घपलेबाज, एनआरएचएम और स्मारक घोटालों के पराक्रमी, नोएडा अथॉरिटीज लूट के पोषक, आय से अधिक सम्पत्ति अर्जित करने बाले सिद्धहस्तों, बुखारी जैसे धर्म की आड़ में ज़हर फ़ैलाने वालों को 'आम आदमी पार्टी' की छतरी में दुबककर अपनी-अपनी गर्दनें बाहर निकालने का मौका मिल गया है।
(6) दिल्ली जैसे छोटे राज्य में बीजेपी की पराजय कोई बहुत अहम राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है। आखिर 'औसत का नियम (Law of Averages)' का सिद्धांत भी बीजेपी की अनेकोंएक सफलताओं के पथ में क्रियान्वित होना ही था, सो हुआ भी। अब बीजेपी को इन घटनाओं से सबक लेकर भविष्य की रणनीति बनानी होगी।
(6) दिल्ली जैसे छोटे राज्य में बीजेपी की पराजय कोई बहुत अहम राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है। आखिर 'औसत का नियम (Law of Averages)' का सिद्धांत भी बीजेपी की अनेकोंएक सफलताओं के पथ में क्रियान्वित होना ही था, सो हुआ भी। अब बीजेपी को इन घटनाओं से सबक लेकर भविष्य की रणनीति बनानी होगी।
लेकिन :
भारत के लिये सर्वाधिक चिंता की बात यह है कि पड़ोसी शत्रु देश में बैठे भारत के दुश्मन भी बीजेपी की हार पर ख़तरनाक इरादों से जश्न मना रहे हैं और फूले नहीं समा रहे हैं, उनका "आप" की जीत से कोई लेना-देना नहीं है। अतः सावधान भारत !
*अनेश कुमार अग्रवाल
12.02.2015
Sunday, December 21, 2014
धर्मान्तरण : समस्या और निदान
लोभ देकर, छल करके एवं बलपूर्वक धर्मांतरण (धर्म परिवर्तन/ धर्म परावर्तन) भारतवर्ष में विधि-विरुद्ध है। स्वतंत्र भारत में धर्मांतरण से उपजा विवाद सदैव ही वैमनस्यता को उत्पन्न करने वाला, समाज और देश के लिये घातक तथा विकास के लिये बाधक रहा है।
बहुधा प्रभावित व्यक्ति, धर्मांतरण क्रियाओं में संलग्न व्यक्तियों या संगठनों द्वारा धर्मांतरण के पश्चात् आरोप-प्रत्यारोप करते देखा जाना आम बात होने लगी है।
भारतीय क़ानून वर्तमान में धर्मान्तरण को प्रतिबंधित नहीं करता है, अपितु उसके लिये कुछ मापदंड तथा दशायें निर्धारित करता है। इन्हीं मापदंडो तथा दशाओं को जब कसौटी पर परखने की बारी आती है, समस्यायें और विरोधाभास जन्म लेने लगता है, परस्पर आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो जाता है और विवाद सामने आने लगते हैं।
समस्या का स्थायी निदान निम्न प्रकार से संभव दिखायी देता है :
बहुधा प्रभावित व्यक्ति, धर्मांतरण क्रियाओं में संलग्न व्यक्तियों या संगठनों द्वारा धर्मांतरण के पश्चात् आरोप-प्रत्यारोप करते देखा जाना आम बात होने लगी है।
भारतीय क़ानून वर्तमान में धर्मान्तरण को प्रतिबंधित नहीं करता है, अपितु उसके लिये कुछ मापदंड तथा दशायें निर्धारित करता है। इन्हीं मापदंडो तथा दशाओं को जब कसौटी पर परखने की बारी आती है, समस्यायें और विरोधाभास जन्म लेने लगता है, परस्पर आरोप-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो जाता है और विवाद सामने आने लगते हैं।
समस्या का स्थायी निदान निम्न प्रकार से संभव दिखायी देता है :
अथवा
* धर्मांतरण करने वाले व्यक्ति को जिला जज सरीखे जनपद स्तर के न्यायिक अधिकारी के समक्ष व्यक्तिगत रूप से उपस्थित करबाकर परीक्षण किया जाये कि वह देश के क़ानून के तहत अपने वर्तमान धर्म को परिवर्तित करके अमुक धर्म में धर्मांतरित होना चाहता है, अतः उसे अनुमति प्रदान की जाये। यह सम्पूर्ण प्रक्रिया पारदर्शी होने के साथ-साथ एक अत्यंत छोटी समयावधि के भीतर सम्पन्न होनी चाहिये। एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तन का एक अनिवार्य समयावधि अंतराल भी निर्धारित किया जा सकता है।
21.12.2014 (Sunday)
Wednesday, December 17, 2014
पिशाच बने आतंकबादी !
16 दिसम्बर, 2014 वैश्विक इतिहास में वह काला दिन बन गया है जब नर-पिशाच "तहरीके-ए-तालिवान पाकिस्तान" ने पेशावर पाकिस्तान के एक स्कूल में इंसानियत को कुचल डाला और बेगुनाह, मासूम, हँसते-खेलते फूल जैसे 132 बच्चों एवं 10 स्कूल-स्टाफ कर्मियों का बेरहमी से कत्लेआम कर डाला। पूरी दुनिया में मानवता का दिल कराह उठा है। इंसानियत हतप्रभ और शब्द-विहीन होकर रह गयी है। दहशतगर्दों के इस कायरतापूर्ण, बर्बर और वहशियाना नीचकर्म की निंदा करने के लिये शब्दकोष में मौज़ूद शब्द नाकाफ़ी हैं।
आतंकबाद के विरुद्ध निर्णायक संघर्ष में पूरी दुनिया को ईमानदारी से संगठित होना पड़ेगा। पाकिस्तान आख़िर भारत के ही जिस्म का एक हिस्सा है, आज हर भारतवासी का ग़म में डूबा होना स्वाभाविक है। पाकिस्तानी हुक़ूमत और पाकिस्तानी सेना जितनी जल्दी हो, ख़ुदा के वास्ते, ये समझ जाये कि अपनी छत के नीचे किसी भी तरीक़े की दहशतगर्दी को पालने-पोषने का अंजाम कितना भयावाह और दर्दनाक होता है, तभी तो आज भी 'हाफ़िज़ सईद' जैसा सिरफिरा और खुदगर्ज आतंकवादी इस दर्दनाक, असहनीय हादसे का कुसूरवार भारत को बताने का दुस्साहस कर रहा है, और भारत पर हमला करने की धमकी दे रहा है।
17.12.2014
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