भारतीय न्यायप्रणाली में विभिन्न स्तरों पर अनेकों न्यायिक अधिकरण (Judicial Forums) हैं, जिनमें सुप्रीम कोर्ट, हाई-कोर्ट, जनपदीय स्तर पर दीवानी कोर्ट; फ़ौज़दारी कोर्ट, विभिन्न ट्रिब्यूनल प्रमुखता से शामिल हैं। इनके अतिरिक्त आयोग (कमीशन), परिषद (बोर्ड), उपभोक्ता अदालतें (कंज्यूमर कोर्ट्स), राजस्व न्यायालय (रेवेन्यू कोर्ट्स) आदि भी हैं।
उच्च न्यायिक अधिकरणों को छोड़कर उपरोक्त अनेकों जुडिशियल फ़ोरम्स में न्यायिक अधिकारियों के अलावा ग़ैर न्यायिक अधिकारी भी जज या पीठासीन अधिकारी (Presiding Officer) के रूप में फ़ैसले देते हैं। आश्चर्यजनक रूप से ऐसे ग़ैर न्यायिक अधिकारी विभिन्न अधिनियमों, कानूनों, नियमों आदि की व्याख्या, विवेचना और 'सुनवाई' करके "फैंसले" दे रहे हैं, जिन्होंने औपचारिक रूप से न तो कानून की पढ़ाई करके कानून की कोई डिग्री प्राप्त की है और न ही कोई कानूनी योग्यता औपचारिक रूप से प्राप्त की है।
यह एक काला सच है कि इनके द्वारा दिये गये तमाम "फ़ैसले (Judgements)" बहुधा उनके अधीनस्थ बैठे लोग या कोई "और" तैयार कर रहे और लिख रहे हैं, क्योंकि 'आदेश और निर्णय' तो इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर "रिज़र्व" ही कर लिये जाते हैं। ऐसे में न्याय की गुणवत्ता के स्तर का और निष्पक्षता का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होना चाहिये।
मसलन, भारत में वक़ील (अधिवक्ता या एडवोकेट) बनने के लिये एल०एल०बी० की डिग्री अनिवार्य है, जज बनने के लिये नहीं !
राजस्व न्यायालयों का एक कड़वा सच और : विभिन्न स्तरीय राजस्व न्यायालयों का एक कड़वा सच और भी है, कि नायब-तहसीलदार, तहसीलदार, एस०डी०एम०, ए०डी०एम०, डी०एम०, असिस्टेंट कमिशनर, कमिशनर जैसे अधिकारीगणों का अक्सर "प्रशासनिक कार्यों" में व्यस्त रहना बताया जाता है, बहुधा यह स्वाभाविक भी होता है। मतलब सीधा सा - न्यायिक कार्य ठप्प !
समझ से परे है कि इन प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त अफसरों को न्यायिक कार्य सौंपने की व्यवस्था का औचित्य क्या है? एक तो प्रथम- ये अधिकारी प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त रहते हैं और दूसरे- कुछ अपवादों को छोड़कर इनको औपचारिक कानूनी ज्ञान भी नहीं होता।
इसका भयानक परिणाम ये होता है कि राजस्व मामलों का वर्षों ही नहीं बल्कि दशकों तक लटके रहना और अभूतपूर्व रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और पक्षपात को प्रश्रय। और अगर कहीं कोई 'सीनियर ब्यूरोक्रेट' स्वयं या उसका कोई नज़दीकी मुक़दमे में पक्षकार या हितबद्ध (Interested) हुआ तो फिर फ़ैसला उसके विरुद्ध कैसे किया जा सकता है, और वह भी "सबॉर्डिनेट एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर" के द्वारा।
इसके अतिरिक्त राजस्व अदालतों का क्या कोई दिवस और समय निर्धारित होता है? यदि हाँ- तो क्या इस निर्धारण का कड़ाई से पालन होता है? यदि नहीं- तो लंबित मामलों के पक्षकारों के पास प्रतिकारी उपाय (Remedial Measures) क्या-क्या उपलब्ध हैं? या फ़िर तारीख़-पर-तारीख़? यदि कोई राजस्व न्यायालय अमुक किसी मामले में हितबद्ध है तो फिर वाद दायर होने के एक-दो महीने के अंदर फ़ैसला, और वह भी क़ानूनी प्रावधानों, नियमों को ताक पर रखकर? दोषियों के लिये सज़ा का क्या कोई निर्धारण है? स्वाभाविक विधिक चूक की तो 'रिवीजन' या अपील में ठीक किया जाना सामान्य विधिक प्रक्रिया है, लेकिन जानबूझकर की गयी चूक को कठोरता के साथ दण्डित भी किया जाना चाहिये।
**याद रहना चाहिये, किसान की ज़िन्दगी का एक-मात्र सहारा उसकी ज़मीन के अन्यायपूर्ण तरीक़े से छिन जाने की जब नौबत आ जाती है तो फिर फ़ौज़दारी मामलों का भी जन्म होने लगता है, क्योंकि न्याय से नाउम्मीद हो चुका अच्छा-भला इंसान भी क़ानून को अपने हाथ में लेने से फिर संकोच नहीं करता है।
अतः तुरंत और प्रभावी समाधान अपेक्षित है। नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत (Principles of Natural Justice), विधि का शासन (Rule of Law), यथोचित विधि प्रक्रिया (Due Process of Law) जैसे विधिक मानदंडो का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिये। अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाये।**
उच्च न्यायिक अधिकरणों को छोड़कर उपरोक्त अनेकों जुडिशियल फ़ोरम्स में न्यायिक अधिकारियों के अलावा ग़ैर न्यायिक अधिकारी भी जज या पीठासीन अधिकारी (Presiding Officer) के रूप में फ़ैसले देते हैं। आश्चर्यजनक रूप से ऐसे ग़ैर न्यायिक अधिकारी विभिन्न अधिनियमों, कानूनों, नियमों आदि की व्याख्या, विवेचना और 'सुनवाई' करके "फैंसले" दे रहे हैं, जिन्होंने औपचारिक रूप से न तो कानून की पढ़ाई करके कानून की कोई डिग्री प्राप्त की है और न ही कोई कानूनी योग्यता औपचारिक रूप से प्राप्त की है।
यह एक काला सच है कि इनके द्वारा दिये गये तमाम "फ़ैसले (Judgements)" बहुधा उनके अधीनस्थ बैठे लोग या कोई "और" तैयार कर रहे और लिख रहे हैं, क्योंकि 'आदेश और निर्णय' तो इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर "रिज़र्व" ही कर लिये जाते हैं। ऐसे में न्याय की गुणवत्ता के स्तर का और निष्पक्षता का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं होना चाहिये।
मसलन, भारत में वक़ील (अधिवक्ता या एडवोकेट) बनने के लिये एल०एल०बी० की डिग्री अनिवार्य है, जज बनने के लिये नहीं !
राजस्व न्यायालयों का एक कड़वा सच और : विभिन्न स्तरीय राजस्व न्यायालयों का एक कड़वा सच और भी है, कि नायब-तहसीलदार, तहसीलदार, एस०डी०एम०, ए०डी०एम०, डी०एम०, असिस्टेंट कमिशनर, कमिशनर जैसे अधिकारीगणों का अक्सर "प्रशासनिक कार्यों" में व्यस्त रहना बताया जाता है, बहुधा यह स्वाभाविक भी होता है। मतलब सीधा सा - न्यायिक कार्य ठप्प !
समझ से परे है कि इन प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त अफसरों को न्यायिक कार्य सौंपने की व्यवस्था का औचित्य क्या है? एक तो प्रथम- ये अधिकारी प्रशासनिक कार्यों में व्यस्त रहते हैं और दूसरे- कुछ अपवादों को छोड़कर इनको औपचारिक कानूनी ज्ञान भी नहीं होता।
इसका भयानक परिणाम ये होता है कि राजस्व मामलों का वर्षों ही नहीं बल्कि दशकों तक लटके रहना और अभूतपूर्व रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार और पक्षपात को प्रश्रय। और अगर कहीं कोई 'सीनियर ब्यूरोक्रेट' स्वयं या उसका कोई नज़दीकी मुक़दमे में पक्षकार या हितबद्ध (Interested) हुआ तो फिर फ़ैसला उसके विरुद्ध कैसे किया जा सकता है, और वह भी "सबॉर्डिनेट एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफिसर" के द्वारा।
इसके अतिरिक्त राजस्व अदालतों का क्या कोई दिवस और समय निर्धारित होता है? यदि हाँ- तो क्या इस निर्धारण का कड़ाई से पालन होता है? यदि नहीं- तो लंबित मामलों के पक्षकारों के पास प्रतिकारी उपाय (Remedial Measures) क्या-क्या उपलब्ध हैं? या फ़िर तारीख़-पर-तारीख़? यदि कोई राजस्व न्यायालय अमुक किसी मामले में हितबद्ध है तो फिर वाद दायर होने के एक-दो महीने के अंदर फ़ैसला, और वह भी क़ानूनी प्रावधानों, नियमों को ताक पर रखकर? दोषियों के लिये सज़ा का क्या कोई निर्धारण है? स्वाभाविक विधिक चूक की तो 'रिवीजन' या अपील में ठीक किया जाना सामान्य विधिक प्रक्रिया है, लेकिन जानबूझकर की गयी चूक को कठोरता के साथ दण्डित भी किया जाना चाहिये।
**याद रहना चाहिये, किसान की ज़िन्दगी का एक-मात्र सहारा उसकी ज़मीन के अन्यायपूर्ण तरीक़े से छिन जाने की जब नौबत आ जाती है तो फिर फ़ौज़दारी मामलों का भी जन्म होने लगता है, क्योंकि न्याय से नाउम्मीद हो चुका अच्छा-भला इंसान भी क़ानून को अपने हाथ में लेने से फिर संकोच नहीं करता है।
अतः तुरंत और प्रभावी समाधान अपेक्षित है। नैसर्गिक न्याय के सिद्धांत (Principles of Natural Justice), विधि का शासन (Rule of Law), यथोचित विधि प्रक्रिया (Due Process of Law) जैसे विधिक मानदंडो का कड़ाई से पालन सुनिश्चित किया जाना चाहिये। अन्यथा कहीं ऐसा न हो कि बहुत देर हो जाये।**
अनेश कुमार अग्रवाल
17.05.2015
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