Thursday, July 14, 2016

O Me Lords !

[PRESIDENT RULE IN STATE (Article 356 of the Indian Constitution)]
"Court can only interpret the law and not rewrite or make the law in the name of interpretation."
          Howsoever political topsy-turvy (उथल-पुथल) be in the State even to put the State Government in a situation not able to be carried on in accordance with the provisions of the Constitution, because of Horse Trading of the members of the House even if championed by the Chief Minister visible on T.V. (Uttrakhand) or State Govt. downsized to monority (Tuki Govt.) in an extremely sensitive border State (Arunanchal Pradesh), the Governor are to shut their eyes and ears to such political developments ?
         The answer is in big "NO".
          This is not the spirit of Indian Constitution and intention of the constitution framers.
          Needless to emphasize, the President may invoke Art. 356 on receipt of report from the Governor of a State or "OTHERWISE".
          The guideline of "Floor test" in judicial precedents cannot be interpreted in 'ABSOLUTISM' but in 'RELATIVITY' & 'ENTIRETY OF THE SITUATION' instead.

Thursday, April 21, 2016

न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की चाहरदीवारी...?

     न्यायिक समीक्षा क्या ऐसे "दरवाज़े" का निर्माण कर सकती है, जिसमें से घुसकर वो क़ानून बनाना (Legislating) शुरू कर दे ? निश्चित रूप से जबाब 'न' में होगा।

     नज़दीकी अतीत गवाह है कि भारत में न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) के नाम पर "शक्ति-पृथक्करण के सिद्धांत (Doctrine of Separation of Powers)" के साथ भी छेड़-छाड़ करने की कोशिशें हुई हैं, लेकिन बाद में शीर्ष न्यायिक संस्थाओं ने ही "आत्म-संयम (Self-Restraint)" के सूत्र का पालन किया एवं करबाया है।

     प्रतिपादित कुछ सिद्धांतों की अवधारणायें "स्वयं की सुविधा (Self suitability)" के अनुसार बदलती नहीं रहनी चाहिये, वरना "पसँघा (Biasness)" झाँकने लगता है। मसलन-

**** "आत्मनिष्ठ संतुष्टि (Subjective Satisfaction)" और "वस्तुनिष्ठ संतुष्टि (Objective Satisfaction)" राज्यों में राष्ट्रपति-शासन के मामलों में महामहिम राष्ट्रपति महोदय की "संतुष्टि" आख़िर किस प्रकार की होगी और उसकी विषय-सामग्री (Content) क्या होगी ? इसकी परिधि निर्धारित होनी चाहिये।

**** उत्तराखंड में लागू 'राष्ट्रपति-शासन' के मामले में माननीय नैनीताल उच्च-न्यायालय की "ग़ैर-जरूरी" टिप्पणियाँ, "Power corrupts; and absolute power corrupts absolutely", "President is not above the law", कहीं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 361 ( राष्ट्रपति के विशेषाधिकारों का संरक्षण) का उल्लंघन तो नहीं है ? 

     बोम्मई केस में यह अभिनिर्धारित हुआ था कि "सदन के अंदर बहुमत तय किया जायेगा। महामहिम राष्ट्रपति या राज्यपाल महोदय के यहाँ सदन के सदस्यों की 'परेड' करा देना बहुमत साबित करने का मापदंड नहीं होगा।" लेकिन बोम्मई मामले में यह अभिनिर्धारित नहीं हुआ था, कि यदि किसी राजनैतिक दल का 'नेता' या स्वयं मुख्यमंत्री ही सदस्यों की 'ख़रीद-फ़रोख़्त (Horse Trading)' में संलिप्त पाया जायेगा, तो फिर बोम्मई केस के अनुसार सदन में बहुमत सिद्ध (Floor Test) करने की प्रक्रिया ही दूषित हो जायेगी ? फिर ऐसे में क्या होगा ?

     सरकारें यदि "राष्ट्रपति शासन" (भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356) का दुरूपयोग करेंगी, तो आने वाले चुनावों में जनता सबक सिखायेगी, अत्यधिक न्यायिक सक्रियता व तत्परता देश की शीर्ष संस्थाओं में "संतुलन" ख़राब कर देगी।

     न्यायिक फ़ोरम  दशकों से लंबित मुकदमों का 'ढेर' निबटाने में न्यायिक सक्रियता दर्शायें, तो देशहित में होगा। न्यायिक समीक्षा के नाम पर अत्याधिक न्यायिक सक्रियता पिछले दरवाज़े से शासन करने की अभिलाषा मात्र है, जो देश की न्यायिक-व्यवस्था के लिये ख़तरनाक़ है।

     उत्तराखंड में दिनाँक 21.04.2016 को राष्ट्रपति शासन हटाये जाने का फ़ैसला नैनीताल हाईकोर्ट, उत्तराखंड की ऐतिहासिक भूल साबित होगा।
**अनेश कुमार अग्रवाल 
**21.04.2016  

Wednesday, October 14, 2015

"सम्मानितों" की अजीबोगरीब होड़ !

आजकल अपने देश में साहित्य कला से जुड़े लोगों द्वारा पूर्व में उनको मिले 'सम्मानों' को लौटाने की होड़ सी मच गयी है। 
यक्ष प्रश्न यह है कि अमुक सम्मान उनको उनकी कला और लेखन की उत्कृष्टता के लिये दिया गया था, या उनकी किसी राजनैतिक या सामाजिक विशेष विचारधारा के लिये ? इसके अतिरिक्त 'सम्मान' प्राप्त करने पर उनका जो मान, प्रतिष्ठागान और महिमामंडन हुआ था, क्या वह उसको लौटा पायेंगे ? अब उनको यदि किसी अमुक राजनैतिक या सामाजिक विचारधारा से संलिप्त होकर अपनी किसी उद्देश्यपूर्ति की भूख को शान्त करना है, तो पूर्व में मिले 'सम्मान' की पीठ पर चढ़कर क्यों सवारी करना चाहते हैं ?
*अनेश कुमार अग्रवाल 
14.10.2015   

Tuesday, October 6, 2015

मर्यादा लाँघने की छटपटाहट ?


 **********माननीय जस्टिस मार्कण्डेय काटजू साहब (सेवा निवृत) !
*विभिन्न न्यायालयों में जिस तस्वीर के नीचे बैठकर वर्षों आपने अनेक न्यायिक फ़ैसले सुनाये हैं, उनको राष्ट्र का पिता कहा जाता है, राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी। अब भला इंसान का पिता तो होता है, देश का पिता कोई कैसे हो सकता है ?
*धरती को लोग माता कहते हैं, धरती माता। अब भला ज़मीन भी कहीं किसी की माँ हो सकती है ?
*भारत के बहुत से लोग अपने देश को भारत माता कहते हैं। अब बताइए, कोई देश भी कहीं किसी की माँ या बाप हो सकता है ?
*भारत में कभी दूध की नदियाँ बहा करती थीं। भारत कभी सोने की चिड़िया था। ये कैसी "उट-पटांग" बातें लोग करते रहते हैं ? 
**********मगर ताज्जुब है, आपने ऐसी "उट-पटांग" बातों के लिये कभी अपना श्रीमुख खोला ही नहीं ! जैसा गाय को माँ बता देने पर आप बिफर पड़े हैं। गाय से इंसान के "बायोलॉजिकल" रिश्ते की आप व्याख्या करने लग गये। 
**********माननीय काटजू साहब, क्या आप सदैव शाब्दिक अर्थ (Literal Meaning) के आधार पर ही फ़ैसले करते रहे हैं, क्या आपने कभी सन्दर्भ (Context) देखा ही नहीं ?
**********माननीय काटजू साहब, आपने बेहद सम्मानित पदों पर कार्य-निर्वहन किया है। अपना न सही, कम से कम उन गरिमामयी पदों की मर्यादाओं का मान तो रख लीजिये, या क्षुद्र राजनीति के कीचड़ में उतर कर ही मानेंगे ? 
*अनेश कुमार अग्रवाल 
06 अक्टूबर, 2015   

Monday, September 14, 2015

१४ सितम्बर, हिन्दी दिवस

 
       प्रत्येक वर्ष १४ सितम्बर को हिन्दी दिवस की "बर्थ-डे" मनाने की रस्मअदायगी वाली मानसिकता को छोड़कर हिन्दी के उपयोग, प्रचार, प्रसार हेतु दृढ़-संकल्पित होने की प्रतिज्ञा करने के दिवस के रूप में मनाना चाहिये। इसके अतिरिक्त हिन्दी के निहितार्थ पूर्व में किये गये स्वयं के योगदान, यदि कोई रहे हों, का आत्मनिरीक्षण भी अवश्य किया जाना चाहिये।
*अनेश कुमार अग्रवाल 
१४ सितम्बर, २०१५ 

Sunday, August 2, 2015

तारीख़ पर तारीख़.... !


     भारत जैसा देश जहाँ लाखों-करोड़ों मुकदमें केवल वर्षों से ही नहीं बल्कि दशकों से अदालतों में धूल फाँक रहे हों, वहाँ अदालतों में गर्मियों की, सर्दियों की, हफ्तों-महीनों की छुट्टियाँ कर देना भारतीय आम जनमानस के प्रति घोर क्रूरतम अन्याय है|
      "Justice delayed is justice denied and JUSTICE OVER-DELAYED IS INJUSTICE DONE"   
     न्याय-प्रक्रिया में अनुचित विलम्ब का एक ताज़ातरीन उदाहरण यह देखने में आया है कि बहुधा विधिक-समुदाय (Legal Fraternity) से जुड़े व्यक्ति की मृत्यु, जोकि एक अटल सत्य है, के मामले में न्यायालय की कार्यवाही शोक-सभा (Condolence) के नाम पर पूरे दिन के लिये स्थगित कर दी जाती है। परिणामतः न्याय होने में विलम्ब की दरार और चौड़ी होती चली जाती है। 'तारीख़ पर तारीख़' वाला ज़ुमला बेरोकटोक चलता रहता है। निःसंदेह मृत्यु कितनी भी अटल क्यों न हो, संवेदनाये जगाने वाली होती है, कष्टकारी होती है, लेकिन 'शोक-सभा' क्या अदालती कामकाज के बाद सायंकाल 05:00 बजे नहीं आहूत की जा सकती है? पूरे दिन की छुट्टी का क्या औचित्य है? इसके अलावा, आये दिन बार-एसोसिएशन के कार्य-स्थगन प्रस्ताव, कोई विपरीत आदेश न किये जाने का प्रस्ताव (No Adverse Order) आदि-आदि पर भी प्रभावी रोक लगनी चाहिये, क्योंकि न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया को विलंबित करने में यह भी बड़ा कारण हैं।
     मैं अपने वारे में यह घोषणा करना चाहता हूँ, कि मेरी मृत्यु पर मेरे सम्मानित अधिवक्ता-बन्धुओं के ह्रदय में मेरे प्रति यदि तनिक भी सहानुभूति, संवेदना हो, तो मेरी मृत्यु के दिन सामान्य से आधा-एक घंटा अधिक न्यायालय का कार्य करें, अवकाश कदापि न करें, यही मुझे श्रद्धांजलि होगी।
 *अनेश कुमार अग्रवाल 
02 अगस्त, 2015 

Wednesday, July 29, 2015

दया याचिकायें !

    स्वच्छ  न्याय के प्रशासन (Fair Administration of Justice) हेतु अब यह अनिवार्य हो गया है कि संसद और न्यायपालिका को यह तय कर देना चाहिये कि एक "दोषी" कितनी बार राष्ट्रपति महोदय और राज्यपाल महोदय के पास दया-याचिका दाखिल कर सकता है। अमुक "दोषी" के द्वारा बार-बार दया-याचिकायें दाख़िल करना और इन संस्थानों के द्वारा विचारार्थ स्वीकार कर लेना क्या विधि-सम्मत है या न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया में उल्लंघन ?
     इसके अतिरिक्त लंबित दया-याचिकाओं के निपटारे की समय-सीमा का अभिनिर्धारण भी होना चाहिये।
*अनेश कुमार अग्रवाल
29.07.2015