मुज़फ्फ़रनगर दंगों की भेंट चढ़ चुके दर्जनों निर्दोष परिवारों ने अपने प्रियजनों की केवल जान ही नहीं गवायीं, बल्कि अपना सब कुछ उजड़ते भी अपनी आँखों के सामने देखा। आखिर, दंगों का इस दर्ज़ा फैलाव कांग्रेस नेतृत्व बाली केन्द्र और सपा नेतृत्व की उत्तर-प्रदेश की सरकारों की सिर्फ़ बिफलता का ही परिणाम नहीं था, एक गम्भीर राजनीतिक साज़िश भी थी, जिससे चुनावी फायदा हासिल किया जा सके। बाद में तो घड़ियाली आँसू बहाने की सियासी रवायत आजकल सब देख ही रहे हैं।
जब मुज़फ्फरनगर जल रहा था, ठीक उसी समय सपा सुप्रीमों के गृह ग्राम "सैफई" में आम-जनता की गाढ़ी कमाई के करोड़ो रुपये लुटाकर फ़िल्मी ठुमके लगवाये जा रहे थे, ऐसा समाजबाद देखकर आदरणीय लोहिया जी भी जीवित रहना शायद पसंद नहीं करते। मुज़फ्फ़रनगर के भुक्तभोगी एक बाशिंदे के दिल की आह कितनी सटीक है -
*** तुम सँवरकर सजन "सैफई" बन गये, हम उजड़कर मुज़फ्फ़रनगर हो गये। ***
प्रिये देशवासियों, आपके बहुमूल्य वोट की ताक़त अब आपके पास है, और मौक़ा भी है।
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