भारत जैसा देश जहाँ लाखों-करोड़ों मुकदमें केवल वर्षों से ही नहीं बल्कि दशकों से अदालतों में धूल फाँक रहे हों, वहाँ अदालतों में गर्मियों की, सर्दियों की, हफ्तों-महीनों की छुट्टियाँ कर देना भारतीय आम जनमानस के प्रति घोर क्रूरतम अन्याय है|
"Justice delayed is justice denied and JUSTICE OVER-DELAYED IS INJUSTICE DONE"
न्याय-प्रक्रिया में अनुचित विलम्ब का एक ताज़ातरीन उदाहरण यह देखने में आया है कि बहुधा विधिक-समुदाय (Legal Fraternity) से जुड़े व्यक्ति की मृत्यु, जोकि एक अटल सत्य है, के मामले में न्यायालय की कार्यवाही शोक-सभा (Condolence) के नाम पर पूरे दिन के लिये स्थगित कर दी जाती है। परिणामतः न्याय होने में विलम्ब की दरार और चौड़ी होती चली जाती है। 'तारीख़ पर तारीख़' वाला ज़ुमला बेरोकटोक चलता रहता है। निःसंदेह मृत्यु कितनी भी अटल क्यों न हो, संवेदनाये जगाने वाली होती है, कष्टकारी होती है, लेकिन 'शोक-सभा' क्या अदालती कामकाज के बाद सायंकाल 05:00 बजे नहीं आहूत की जा सकती है? पूरे दिन की छुट्टी का क्या औचित्य है? इसके अलावा, आये दिन बार-एसोसिएशन के कार्य-स्थगन प्रस्ताव, कोई विपरीत आदेश न किये जाने का प्रस्ताव (No Adverse Order) आदि-आदि पर भी प्रभावी रोक लगनी चाहिये, क्योंकि न्याय प्रदान करने की प्रक्रिया को विलंबित करने में यह भी बड़ा कारण हैं।
मैं अपने वारे में यह घोषणा करना चाहता हूँ, कि मेरी मृत्यु पर मेरे सम्मानित अधिवक्ता-बन्धुओं के ह्रदय में मेरे प्रति यदि तनिक भी सहानुभूति, संवेदना हो, तो मेरी मृत्यु के दिन सामान्य से आधा-एक घंटा अधिक न्यायालय का कार्य करें, अवकाश कदापि न करें, यही मुझे श्रद्धांजलि होगी।
*अनेश कुमार अग्रवाल
02 अगस्त, 2015